Add To collaction

सफर - मौत से मौत तक….(ep-14)

समीर धीरे धीरे बढ़ा होता गया, प्राथमिक स्कूल घर से ज्यादा दूर नही था, कौशल्या ही समीर को छोड़कर आती और लेकर आती थी। पांचवी तक तो ये काम कौशल्या करती रही, उसके बाद जब सेकेंडरी स्कूल में उसे भेजने लगे तो नंदू रिक्शे में उसे छोड़ने जाने लगा।
नंदू उस महंगे स्कूल में समीर को पढ़ा रहा था, कमाई सारी समीर पर लगा रहा था इस उम्मीद में की, उसका किया हुआ त्याग एक दिन लौटकर आएगा, कल को बुढ़ापे में समीर ही उसके काम आएगा, ये पैसे नही।

   समीर भी पढ़ने लिखने में होशियार था, लगातार अच्छे नंबरों से पास होते होते आठवीं में भी आ गया था। तेरह साल की उसकी उम्र हो चुकी थी। इसी उम्र में समीर ने अपनी माँ समान दादी कौशल्या को खो दिया था….बहुत रोया था उस दिन समीर….
  नंदू रिक्शा चलाकर घर पहुंचा तो अपने ही घर पर उमड़ी भीड़ देखकर हैरान हो गया, उसे लगा ना जाने क्या हो गया, बाहर गली के पास खड़े लोग बहुत दया भावना से नंदू की तरफ देख रहे थे, नंदू समीर को लेकर आ रहा था। नंदू का हाथ थामे भीड़ को हटाते हुए नंदू आगे आते हुए
नंदू ने दो लोगो को आपस मे बात करते हुए सुना- "छत की बाउंड्री वाली दीवार कमजोर थी, दरारें आ रही थी, मैंने कहा भी था नंदू को की एक बार मरम्मत करवा ले, तेरा लड़का खेलता कूदता है छत में लेकिन वो नही माना" एक बुजुर्ग पड़ोसी बोला।

"लेकिन उस दीवार में ये करने क्या गए" दूसरा आदमी बोला।
"दीवार के साथ खुद भी नीचे आ गयी बेचारी" बुजुर्ग बोला।

नंदू के घर की छत की चहारदीवारी कमजोर और गिरने वाली हो रखी थी, लेकिन वो आज से नही बहुत पहले से ऐसी ही थी, लेकिन कभी गिरी नही, शायद कौशल्या देवी की मौत छत से गिरकर ही होनी लिखी होगी, 
    नंदू स्तब्ध था, अचानक जैसे सन्नाटा सा छह गया हो, जबकि समीर चीखते चिल्लाते रोते हुए दादी से लिपट गया
नंदू की माँ, उसके पिताजी के मृत्यु के तेरह साल बाद खुद भी उनके पास चली गयी थी। असली मुशीबत तो नंदू के जीवन मे अब आयी थी,
   माँ की कमी का एहसास अब नंदू को होने लगा था, जिस माँ को खोने से वो डरता था, उसे लगता था शायद मैं हमेशा उसके साथ रहेगी। आज उस माँ को भी खो चुका था,
   समीर के जीवन मे भी माँ के रूप में दादी ही थी जिसने समीर को माँ का प्यार दिया था, लेकिन तब समीर के लिए दादी उसके हर काम मे टांग अड़ाने वाली बुढ़िया थी, ना ज्यादा देर खेलने देती थी, ना बिना काम के बाजार घूमने जाने देती थी। और जब पढ़ाई ना करो तो पापा से डाँट खिलाने की कोशिश करती थी। लेकिन जब पापा डांटते तो बचाने भी खुद ही आती थी।

  अब नंदू की सारी दुनिया बदल गयी थी, सुबह जल्दी उठकर झाड़ू पोछा करना,  खाना बनाना, समीर के लिए टिफिन पैक करके उसका बस्ता तैयार करना, फिर अपना टिफिन तैयार करके घर मे ताला लगा लिता और रिक्शे से समीर को स्कूल तक ले जाना, और दोपहर को ठीक दो बजे समीर के स्कूल पहुंच जाना, और उसे रिक्शे में बिठाकर घर छोड़ जाना, घर आकर फिर जल्दी जल्दी खाना पकाकर उसे खिलाता और खुद दोबारा काम पर चला जाता था। अडोसी पड़ोसी से कह रखा था कि समीर का ध्यान रखे, और वैसे भी समीर अब  समझदार हो चुका था, वो अकेले घर पर रह सकता था।

एक दिन नंदू के पीछे बैठा स्कूल यूनिफार्म में समीर ने नंदू से कहा- "पापा मेरे सारे दोस्त साइकिल में आते है, मुझे भी ला दो ना साइकिल…"

"बेटा….तुम्हे क्या जरूरत है सायकिल की, मैं तुम्हे लेने आता हूँ, लेकर जाता हूँ" नंदू ने कहा।

"लेकिन पापा , साइकिल दिलाने से आपका भी तो फायदा है, आपको मुझे लेने या छोड़ने नही आना पड़ेगा, मैं खुद ही आ जा सकूंगा" समीर बोला।

नंदू हंसते हुए बोला- "मुझे कोई तकलीफ नही बेटा….मुझे तो अच्छा लगता है तुझे छोड़ने जाना और तुझे लेकर आना…"

"लेकिन मुझे नही लगता, सब बच्चे चिढ़ाते है मुझे" समीर ने उदास होते हुए कहा।

"चिढ़ाते है….लेकिन क्यो….??" नंदू ने पूछा।

"कहते है, रिक्शे वाले का लड़का इस स्कूल में क्या कर रहा है, बनना तो रिक्शे वाला ही है, किसी के पापा डॉक्टर है,किसी के सेना में भर्ती है, सबके पापा नौकरी करते है, आप क्यो नही करते नौकरी…." समीर ने कहा।

नंदू को ये बात चुभने लगी और उसने पूछा- "कौन कहता है ऐसा….कौन चिढ़ाता है?"

"हिंदी वाले मास्टरजी ने कहा कि तुम्हारे पापा ने पता नही क्या सोचकर तुम्हे यहाँ एडमिशन दे दिया….अब नौंवी से आगे की पढ़ाई और महंगी हो जाएगी, क्या वो रिक्शा चलाकर  दे पाएँगे फीस…." समीर ने कहा।

"तुम टेंशन मत लो आज के बाद कोइ नही बोलेगा ऐसा" नंदू ने कहा।

रोज नंदू अपने बेटे समीर को सिर्फ स्कूल के बाहर तक छोड़ता था, लेकिन आज वो उतरकर अंदर को आने लगा था।

"पापा आप कहाँ आ रहे हो?" समीर पूछ बैठा।

"मेरे साथ चलो तुम" कहते हुए नंदू प्रधानचार्य के कमरे तक पहुंच गया।

"हम अंदर आ सकते है"  नंदु ने परमिशन माँगी।

प्रधानाचार्य धीरेंद्र शुक्ला उर्फ शुक्ला जी रजिस्टर में कुछ काम कर रहे थे,

"आइए आइए…." शुक्ला जी ने कहा।

नंदू अपने बच्चे को लेकर अंदर आया
बच्चे की नजरे शर्म से झुकी थी, जबकि नंदू की आंखों में एक आत्मविश्वास की झलक थी, इतना आत्मविश्वास से कभी किसी रिक्शे में बैठने वाली सवारी से नजर मिलाकर बात नही की होगी, लेकिन प्रधानाचार्य के सामने पूरे आत्मविश्वास से बात कर रहा था, क्योकि यहाँ वो पैसे मांगता नही, पैसे देता था,और जितना सारे बच्चे दे रहे थे उतना ही दे रहा था, झुकने जैसी कोई बात ही नही थी।

"अरे बैठिए ना आप, खड़े क्यो है?" शुक्ला जी ने कहा।

नंदू जाकर उनके सामने वाली कुर्सी में बैठ गया, जबकि समीर अभी भी खड़ा था।

"क्या बात….कोई समस्या है क्या?" शुक्ला जी पूछ बैठे।

"नही….समस्या नही है कोई, बस कुछ सवाल थे मन मे….सोचा मन में ही रखने से कोई लाभ नही, तो चला आया" नंदू बोला।

शुक्ला जी हंसते हुए बोले- "जी जरूर! वैसे भी मन के सारे सवाल मन मे रहे तो बोझ बन जाती है, आप कहिए, क्या सवाल है आपके"

बातो से प्रधानाचार्य थोड़ा नम्र दिल इंसान लग रहे थे, और अगर किसी की बातों में नम्रता हो तो उससे बात करना अच्छा लगता है, और गुस्सा भी शांत हो जाता है।
नंदू तो वैसे भी गुस्से में भी शांति से उसका हल निकालने की कोशिश करता था, उसके लिए ये अच्छा था कि प्रधानाचार्य जी ज्यादा सख्त नही थे, खैर इससे पहले भी उनसे बहुत बार मिल चुका था नंदू, अब तो वो नन्दू को जानने भी लगे थे।

"क्या आप गुप्ता जी को जानते हो, वो डॉक्टर साहब….शिविल हस्पताल में जो डॉक्टर है" नंदू ने सवाल किया।

"हाँ….शायद उनका बच्चा भी हमारे स्कूल में पढ़ता है" शुक्ला जी बोले।

"जी हाँ….अमन नाम है उनके लड़के का….हमारे समीर के साथ ही पढ़ता है आठवी में" नंदू ने कहा।

"हाँ तो….क्यो कुछ शैतानी तो नही कि ना….झगड़ा तो नही किया…." कहकर शुक्ला जी समीर की तरफ देखने लगे।

समीर की तरफ देखते हुए शुक्ला जी ने एक बार फर कहा- "बेटा कोई बात होती है तो हमे बताया करो, अपने कक्षाध्यापक को बताया करो, अपने पिताजी को क्यो परेशान करते हो, क्या नाम है तुम्हारा?" शुक्ला जी बोले।

"समीर" झुकी हुई गर्दन किये समीर ने दबे स्वर में कहा।

"जी नही….अमन ने कुछ नही किया…. अच्छा आप नीरज को पहचानते है, वो शर्मा जी का लड़का, जिनकी अपनी फेक्ट्री है , चीनी की मिल है उनकी, और गन्ने की खेती भी करते है वो" नंदू ने कहा।

"उसकव कौन नही जानता, बहुत शरारती बच्चा है, आये दिन उसकी शिकायत आती है, जरूर उसी ने कुछ किया होगा" शुक्ला जी बोले।

"नही नही….मेरे लिए तो सब बच्चे एक जैसे है, और शरारत करने की उम्र यही है, लेकिन कुछ लोग अधेड़ उम्र भी भी अजीब शैतानियां करते है, शिकायते तो उनकी लगाई जाती है….मैं बस ये पूछ रहा था, अमन और नीरज दोनो मेरे समीर की क्लास में पढ़ते है….उनका मासिक शुल्क कितना है?" नंदू ने कहा।

"अरे! जितना आपके बच्चे का है उतना ही होगा….आपके बच्चे का कितना है" शुक्ला जी बोले।

"नही नही! ऐसे कैसे हो सकता है, जरूर वो मुझसे दोगुना या चारगुना शुल्क अदा करते होंगे, आप एक बार रजिस्टर में देखकर बताईये ना, अति कृपा होगी आपकी" नंदू ने बहुत ही शालीनता से कहा।

"अरे! ऐसा कुछ नही है, मुझे अच्छे से मालूम है आठवी कक्षा के सभी विद्यार्थी बराबर शुल्क देते है, ये कोई सरकारी स्कूल थोड़ी है कि यहाँ जाती धर्म के हिसाब से वजीफा मिलेगा या निशुल्क और कम शुल्क में पढ़ाया जाएगा, हमारे  स्कूल में सब विद्यार्थी एक समान है" शुक्ला जी बोले।

"एक बार! बस एक बार रजिस्टर में देख के बता देते तो तसल्ली हो जाती की जितना शुल्क सब दे रहे है उतना ही हम भी दे रहे है" नंदू ने हाथ जोड़ते हुए कहा।

"ये क्या कर रहे है आप, प्लीज हाथ मत जोड़िए, मैं आपकी तसल्ली के लिए रजिस्टर मंगवाता हूँ" शुक्ला जीने कहा और चपरासी को आवाज देते बुलाया।

"जी साहब…." चपरासी हाजिर हुआ।

"रामलाल वो कक्षा आठवी का मासिक शुल्क विवरण वाला रजिस्टर लेकर आना" शुक्ला जी ने कहा।

रामलाल रजिस्टर लेने चला गया।

"और बताईये क्या सेवा करूँ आपकी, चाय लेंगे आप" शुक्ला जी ने नंदू से पूछा।

"जी नही! मेहरबानी आपकी….अभी मैं कुछ नही लूँगा" नंदू ने कहा।

"लेकिन अचानक आपके मन मे ये ख्याल कैसे आया….शुल्क जमा करने तो आप ही आते हो हर महीने, पहले कभी नही पूछा आपने, देखो अगर पैसो की कमी या कोई मुश्किल है तो मुझे नई संकोच कहिए, आपका बालक होनहार है, और पढ़ने में होशियार भी है।" शुक्ला जी को लगा शायद शुल्क कम करवाने की बात करने आया होगा और सीधे सीधे बोलने में शर्म महसूस कर रहा होगा।

"जी नही, ऐसी कोई बात नही है" नंदू बोला ही था कि रजिस्टर लेकर रामलाल भी आ पहुंचा।

शुक्ला जी ने रजिस्टर खोलकर नंदू के आगे रख दी….

नंदू ने सबसे ऊपर की पंक्ति में उंगली रखा और सबके शुल्क को पढ़ते हुए नीचे तक आया, सब बच्चो से पचास रुपये लिए जा रहे थे, और समीर से भी पचास ही लिए जा रहे थे।

"अरे सब बच्चो से पचास रुपये ही लिए है, सबका शुल्क एक समान है" नंदू बोला।

"मैंने कहा था ना….अरे हम भला अलग अलग शुल्क क्यो लेंगे" शुक्ला जी बोले।

अब नंदू ने रजिस्टर को ढक कर हाथ मे उठाया और खड़े उठकर जोर से रजिस्टर को टेबल में पटकते हुए नाराजगी भरे शब्दो मे बोला-
  "अगर शुल्क लेने में कोई भेदभाव नही तो कक्षा में पढ़ाते समय बच्चो में भेदभाव क्यो मास्टरजी? ये क्यो देखा जाता है कि किसका बाप कैसे कमाकर ला रहा है, किसके बाप की क्या नौकरी, कौन डॉक्टर है कौन थानेदार है और कौन रिक्शा चलाता है….आखिर क्यो" नंदू ने कहा।

शुक्ला जी खड़े होते हुए बोले- "शांत हो जाइए, किसने कहा और क्या कहा, मुझे बताईये"

नंदू का पारा चढ़ने लगा था, क्योकि उसके जान से प्यारे बेटे ने जो शिकायत आज की थी वो एक तूफान की तरह नंदू अपने रोम रोम में समेटे हुए था, और आंधी को कब तक कैद किया जा सकता था, बस अचानक ही बहुत गुस्से में आये पिताजी के सामने एक प्रधानाध्यापक की बोलती बंद हो गयी….

"हिंदी के शिक्षक ने मेरे बेटे से कहा कि तूने बड़ा होकर चलाना तो रिक्शा ही है, फिर क्यो पढ़ रहा है यहाँ, बाकी बच्चो के सबके पापा अच्छी नौकरी करते है……. आप बताओ क्या मैं रिक्शा चलाता हूँ तो मेरा बेटा भी रिक्शा चलाएगा, क्या इसीलिए उसे इस स्कूल में पढ़ा रहा हूँ मैं…. कौन बाप चाहता है कि उसका बेटा उसकी तरह दर दर की ठोकरें खाये, हर बाप का सपना होता है कि उसका बेटा कुछ बड़ा बने, अपने माँ बाब का नाम रोशन करें….और आपके स्कूल के मास्टरजी कहते है कि तू रिक्शा चलाने वाले का लड़का है रिक्शा ही चलाएगा"  नंदू गुस्से में बोला।

"आप दिल पर क्यो ले रहे है बात….हिंदी के शिक्षक ने कहा है क्या पता कोई उदाहरण पेश किया होगा, बहुत बार कोई बात समझाने के लिए ऐसे उदाहरण देने पड़ते है"  शुक्ला जी बोले।

"जी नही! इसे उदाहरण देना नही बल्कि किसी बच्चे को लज्जित करना है, मैं रिक्शा चलाकर भी पूरी फीश समय पर जमा करता हूँ, बाकी लोग अपनी नौकरी से भी करते है, लेकिन अगर बच्चो को ऐसे उदाहरण दिए जाएंगे तो उनका मनोबल गिर जाएगा, वो पढ़ाई में कैसे ध्यान दे पाएंगे" नंदू ने कहा। नंदू का गुस्सा बढ़ता ही जा रहा था।

"उनकी तरफ से मैं आपसे माफी मांगता हूं, आगे से ऐसी कोई बात नही होगी" शुक्ला जी बोले, तब तक हिंदी के शिक्षक खुद ही वहाँ आ पहूँचे, क्योकि वहाँ से शोर की आवाज आ रही थी, और हिंदी के शिक्षक की आदत थी कि झगड़े वाली जगह जाकर आग में घी डाला जाए, और धुंआ देखा जाए, मंगर उन्हें क्या पता उनके रोम रोम से धुंआ निकलने वाला है आज……

कहानी जारी है…….


   15
4 Comments

Khan sss

29-Nov-2021 07:23 PM

Good

Reply

🤫

20-Sep-2021 01:56 PM

शानदार.....!क्या बात है...नंदू भी गुस्से में धमक गया।क्या अंदाजे बया है उसका जबरदस्त.. शांति से सारी बात सुनी समझी और फिर सबसे बाद में प्रिंसिपल की ही बैंड बाजा दी..😎😎😎 मजा आ गयी।सही बोला नंदू जब हम फीस बाकी बच्चों की तरह समान ही देते फिर अध्यापक को कुछ भी नही बोलना चाहिए।हर चीज सोचनी समझनी चाहिए ...

Reply

Seema Priyadarshini sahay

14-Sep-2021 09:59 PM

बहुत ही खूबसूरत भाग

Reply